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दोष दर्शन की वृत्ति को पूर्ण शक्ति लगाकर दबाने की चेष्टा करें
जिस समय हम दूसरे का दोष देखने चलते हैं, उस समय हमें यह सोच लेना चाहिए कि हम अपने -आपको उसकी अपेक्षा बहुत अधिक ऊँचा और उस दोष से शून्य अनुभव कर रहे हैं ।यह ऐसी भ्रांति है जो ऊंचे से ऊंचे साधकों तक का पिंड नहीं छोड़ती। असली महासिद्ध में इस दोष दर्शन की वृद्धि का अत्यंत अभाव होता है। और वह वृत्ति है इतनी गंदी कि साधक को परमार्थ के साधन पथ से घसीटकर पीछे की और नर्क के गर्त में प्रायः डाल ही देती है।
यह भी एक बड़े विचारने की बात है कि हम जिस देश का दर्शन दूसरे में कर रहे हैं, वह दोष यदि हमें नहीं होता, तो हमें वह दोष दूसरे में दिखता ही नहीं ।यह ऐसा सत्य है कि जिसका खंडन हो ही नहीं सकता। यद्यपि बुद्धिवाद तो परमार्थ सत्य को छू भी नहीं सकता, किंतु बुद्धिवाद के तर्कों को भी आगे चलकर इस प्रश्न पर स्वीकार कर ही लेना पड़ेगा कि हम जिस कूड़े का अनुभव अन्यत्र कर रहे हैं, कूड़ा वस्तुतः हमारे अंदर ही है और उसी का प्रतिबिंब हम दूसरे पर डाल रहे हैं।
सामने एक व्यक्ति हमें दम्भी- पाखंडी के रूप में दिख रहा है। वहां सत्य तो यह है कि भगवान विराजित हैं ;किंतु उसके स्थान पर हमें अपने अंदर संचित कूड़े का दर्शन हो रहा है। इतना नहीं इस प्रकार के दर्शन की प्रत्येक चेष्टा हमारे अंदर संचित कूड़े के ढेर को निकाल कर हमारे चारों ओर इकट्ठा कर देती है और इतनी दुर्गन्ध फैला देती है कि हम उस ओर से आने वाले भगवान के स्वरूप को ग्रहण कर ही नहीं सकते। अपने ही दुर्गंध हमें सत्य की अनुभूति से दूर ले जाकर तरह- तरह का पाठ पढ़ा देती है और हम यह फतवा दे देते हैं कि 'अमुक तो ऐसा गंदा है, अमुक कैसी गंदी है।' जिन्होंने सत्य का अनुभव किया होता है, इस प्रकार का निर्णय कभी दे नहीं सकते क्योंकि उनकी आँखों में बुरी-भली नाम की कोई वस्तु भी ना रहकर एकमात्र भगवान की सत्ता ही बची रहती है।
*।। श्रीराधाबाबा जु ।।*